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Thursday, February 28, 2019

विजया एकादशी महत्व और कथा

फाल्गुण मास के कृष्ण पक्ष की एकाद्शी को विजया एकादशी के नाम से जाना जाता है. एकादशी व्रत करने से व्यक्ति के शुभ फलों में वृ्द्धि होती है।

इस वर्ष यह एकादशी दिनांक 3 मार्च 2019 को पड़  रही है, यह सब व्रतों से उत्तम व्रत है।एक समय देवर्षि नारदजी ने जगत् पिता ब्रह्माजी से कहा महाराज! आप मुझसे फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी विधान को जानने की इच्छा रखते हुए इस एकादशी के बारे में विस्तार से बताने का आग्रह किया। 
 ब्रह्माजी कहने लगे कि हे नारद! विजया एकादशी का व्रत पुराने तथा नए पापों को नाश करने वाला है। यह समस्त मनुष्यों को विजय प्रदान करती है।

 इस व्रत की कथा इस प्रकार है--

 त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्रजी को जब चौदह वर्ष का वनवास हो गया, तब वे श्री लक्ष्मण तथा सीताजी ‍सहित पंचवटी में निवास करने लगे। वहाँ पर दुष्ट रावण ने जब सीताजी का हरण ‍कर लिया है, इस समाचार से अत्यंत व्याकुल हो वे लक्ष्मण सहित सीताजी की खोज में चल पड़े।  
 घूमते-घूमते जब वे उस जगह पहुंचे जहाँ रावण से सीताजी को बचाते हुए जटायु घायल अवस्था में पड़े हुए थे, जटायु उन्हें सीताजी का वृत्तांत सुनाकर स्वर्गलोक चला गया। कुछ आगे जाकर उनकी सुग्रीव से मित्रता हुई और बाली का वध किया। हनुमानजी ने लंका में जाकर सीताजी का पता लगाया और उनसे श्री रामचंद्रजी और सुग्रीव की‍ मित्रता का वर्णन किया। वहाँ से लौटकर ह जब श्री रामचंद्रजी समुद्र से किनारे पहुँचे तब  उस अगाध समुद्र को देखकर लक्ष्मणजी से कहा कि इस समुद्र को हम किस प्रकार से पार करेंगे।इस पर भगवान श्री राम ने समुद्र देवता से मार्ग देने की प्रार्थना की. परन्तु समुद्र ने जब श्री राम को लंका जाने का मार्ग नहीं दिया तो भगवान श्री राम ने ऋषि गणों से इसका उपाय पूछा. ऋषियों में भगवान राम को बताया की प्रत्येक शुभ कार्य को शुरु करने से पहले व्रत और अनुष्ठान कार्य करने से कार्यसिद्धि की प्राप्ति होती है. और सभी कार्य सफल होते है. हे भगवान आप भी फाल्गुण मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी का व्रत विधिपूर्वक किजिए.
भगवान श्री राम ने ऋषियों के कहे अनुसार व्रत किया और इसके प्रभाव से दैत्यों पर विजय पाई। 
किसी भी व्रत पूजन को पूर्ण विधि- विधान से करने से समस्त कार्यों की सिद्धि होती है। 

Saturday, February 3, 2018

महाशिवरात्रि पूजन, कथा व् आरती

वर्ष २०१८   में महाशिवरात्रि दिन मंगलवार  वीरवार दिनांक १३  फरवरी को पड़ रही ह, कुछ एक जगह पर इसे १४ फरवरी को भी मनाया जा रहा है, यूँ तो आजकल सभी त्यौहार दो दिन पड़ने लगे हैं मगर मुख्य बात ये है की हम किसी भी पर्व को या व्रत को विधि-विधान से मनाएं। 

फाल्गुन मास कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महा शिवरात्रि का महोत्स्व धूमधाम से मनाया जाता है ,त्रियोदशी को एक बार भोजन करके चतुर्दशी को दिन भर अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए  .
इस दिन काले तिलों से स्नान करने के उपरान्त रात्रि में विधिवत शिव जी की पूजा की जानी चाहिए ,शिव जी कू सबसे अधिक प्रिय फूल हैं ---मंदार ,कनेर,बेलपत्र, तथा मौलिगिरी ,यदि ये पुष्प उपलभ्द्ध न हों तो केवल सदाबहार के पुष्पों से भी पूजा की जा सकती है।
शिव जी की पूजा में बेल पात्र का विशेष महत्त्व माना गया है ,शिवलिंग पर चढ़ाये गए पुष्प ,फल आदि को ग्रहण नहीं किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त शिव जी को दूध ,दही ,शहद ,चीनी और घी से शिवाभिषेक भी किया जाना चाहिए।
शिवरात्रि में शिवाभिषेक करने से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती है ,इस दिन अभिषेक करने से घर का पितृ दोष भी समाप्त होता है तथा घर के समस्त वास्तु दोषों का भी निवारण होता है। कहते हैं यदि कुंडली में कल-सर्प योग हो तो रुद्राभिषेकके द्वारा इसका निवारण किया जा सकता है।

कथा:-

एक बार पार्वती ने भगवान शिवशंकर से पूछा, ‘ऐसा कौन सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्यु लोक के प्राणी आपकी कृपा को सरलता पूर्वक  प्राप्त कर लेते हैं?’उत्तर में शिवजी ने पार्वती को ‘शिवरात्रि’ के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई-                    ‘एक गाँव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधवश साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी ने अगले दिन सारा ऋण लौटाने  का वचन दिया और  बंधन से छूट गया।

अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदीगृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए।एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुँची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, ‘मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब तुम मुझे मार लेना।’ शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गई।कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, ‘हे पारधी ! मैं थोड़ी देर पहले ही ऋतु से निवृत्त हुई हूँ। कामातुर विरहिणी हूँ। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी।’शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली , उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, ‘हे पारधी! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊँगी। इस समय मुझे मत मार।’शिकारी हँसा और बोला, ‘सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे।’उत्तर में मृगी ने फिर कहा, ‘जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान माँग रही हूँ। हे पारधी! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ।’मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्व करेगा।शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला,’ हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि उनके वियोग में मुझे एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊँगा।’मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया। उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, ‘मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।’उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई।  उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया।

इस पर स्वर्ग लोक से देवताओं ने व्याघ की सराहना की तथा भगवान् शंकर ने पुष्प विमान भेजकर उस बहेलिये तथा मृग परिवार को शिवलोक  का अधिकारी बना दिया 


शिव जी की आरती:-

ॐ जय शिव ॐकारा, स्वामी हर शिव ॐकारा |
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्धांगी धारा || – ॐ जय शिव ॐकारा
एकानन चतुरानन पंचानन राजे, स्वामी पंचानन राजे |
हंसासन गरुड़ासन वृष वाहन साजे || – ॐ जय शिव ॐकारा
दो भुज चारु चतुर्भुज दस भुज से सोहे, स्वामी दस भुज से सोहे |
तीनों रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे || – ॐ जय शिव ॐकारा
अक्षमाला वनमाला मुण्डमाला धारी, स्वामि मुण्डमाला धारी |
चंदन मृग मद सोहे भाले शशि धारी || – ॐ जय शिव ॐकारा
श्वेताम्बर पीताम्बर बाघाम्बर अंगे, स्वामी बाघाम्बर अंगे |
सनकादिक ब्रह्मादिक भूतादिक संगे || – ॐ जय शिव ॐकारा
कर में श्रेष्ठ कमण्डलु चक्र त्रिशूल धरता, स्वामी चक्र त्रिशूल धरता |
जगकर्ता जगहर्ता जग पालन कर्ता || – ॐ जय शिव ॐकारा
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका, स्वामि जानत अविवेका |
प्रणवाक्षर में शोभित यह तीनों एका || – ॐ जय शिव ॐकारा
निर्गुण शिवजी की आरती जो कोई नर गावे, स्वामि जो कोई नर गावे |
कहत शिवानंद स्वामी मन वाँछित फल पावे || – ॐ जय शिव ॐकारा
ऐसा माना जाता है कि पारद के शिवलिंग से पूजा करने से विशेष फल प्राप्त होता है, यदि आप हर रोज़ शिव लिंग की पूजा शहद, केवड़ा जल से करते हैं तो आपकी मनोकामना पूर्ण होती है। 

Tuesday, December 12, 2017

सफला एकादशी व्रत, विधान और महत्त्व दिसम्बर १३ २०१७



          सन्दर्भ :-

                            पौष मास में कृष्ण पक्ष की एकादशी को सफला नामक एकादशी कहा गया है, वर्ष २०१७ में यह व्रत दिनांक १३ दिसम्बर को पड़ रहा है. सूत जी ने कहा है कि युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा कि माघ मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या महात्मय एवं विधान है।

         महत्त्व :- 

                          जो व्यक्ति सफला एकादशी के दिन व्रत रखकर भगवान विष्णु की पूजा अर्चना करता है। रात्रि में जागरण करते हैं ईश्वर का ध्यान और श्री हरि के अवतार एवं उनकी लीला कथाओं का पाठ करता है उनका व्रत सफल होता है।
                         इस एकादशी के व्रत से व्यक्तित को जीवन में उत्तम फल की प्राप्ति होती है और वह जीवन का सुख भोगकर मृत्यु पश्चात विष्णु लोक को प्राप्त होता है. यह व्रत अति मंगलकारी और पुण्यदायी है। 

         कथा :-

                         युधिष्ठर के प्रश्न् को सुनकर श्री कष्ण ने कहा एक थे राजा महिष्मति उनके पांच पुत्रों में सबसे बड़ा पुत्र बहुत ही अधर्मी था. वह सदा नीच कर्म करता था. शास्त्रों में जो भी पाप कर्म बताये गये हैं वह उन सभी मे लिप्त रहता था. धर्मात्मा राजा अपने पुत्र के स्वभाव एवं व्यवहार से अत्यंत दुखी था. पुत्र के इस नीच कर्म को देखकर राजा ने उसका नाम लुम्भक रख दिया और उसे उत्तराधिकार से वंचित कर देश त्यागने का आदेश दिया.
                        पिता द्वारा अधिकार से वंचित किये जाने एवं देश से बाहर निकाल दिए जाने पर लुम्भक धनहीन हो गया. जीवन की रक्षा के लिए तब लुम्भक ने राज्य में चोरी करना शुरू कर दिया. एक दिन कोतवालों ने उसे चोरी करते पकड़ लिया और राजा के समक्ष ले जाने लगे तब उसने अपने आपको राजकुमार बताया जिससे सैनिकों ने लुम्भक को मुक्त कर दिया. अब लुम्भक जंगल में कंद मूल, फल एवं पशु पक्षियों के मांस पर आश्रित रहने लगा.
                       सौभाग्य से माघ महीने की कृष्ण पक्ष में दशमी तिथि को उसे कुछ भी खाने को नहीं मिला और वह भूखा-प्यासा ही सो गया लेकिन भूख के कारण उसे नींद भी नहीं आ रही थी ,, उसका शरीर ठंढ से अकड़ गया और वह अचेत हो गया. अगले दिन जब उसकी नींद खुली तब दिन के दो-पहर गुजर चुके थे. वह जल्दी जल्दी कंद मूल इकट्ठा करने निकल चला क्योंकि उसे लग रहा था कि अगर आज रात भी भूखा रहना पड़ा तो मृत्यु निश्चित है.
                      कंद मूल एवं फल इकट्ठा करते हुए कैसे सांझ ढल गयी लुम्भक को पता भी नहीं चला. जब वह अपने आश्रयदाता पीपल वृक्ष के पास पहुंचा तब काफी रात हो गयी थी और वह काफी थक भी गया था. इस स्थिति में उसने एकत्रित  किये गये फलादि को पीपल की जड़ में रख कर विष्णु का नाम लेकर सो गया लेकिन ठंढ़ ने उसे इस रात भी सोने नहीं दिया. सुबह आकाशवाणी हुई कि तुमने अनजाने ही सफला एकादशी का व्रत कर लिया जिसके पुण्य से तुम राजा बनोगे और पुत्र सुख प्राप्त करोगे.
                     इस घटना के पश्चात, जंगल के जीवन से जब लुम्भक दुर्बल होता जा रहा था तो उसके मन में आया कि क्यों न फिर से चोरी की जाये,   सो वह शहर की ओर चल पड़ा. संयोग कि बात है कि वह जिस घर में प्रवेश किया उसमें एक साधु रहता था. साधु के घर में उसे कुछ भी नहीं मिला लेकिन उसकी आहट से साधु की नींद खुल गयी और उसने उसे भोजन कराया और प्यार से बातें की.
                    साधु की बातों एवं व्यवहार से प्रभावित होकर लुम्भक साधु के साथ ही रहने लगा. साधु की संगत और संस्कार ने उसके विचार एवं व्यवहार को बदल दिया और वह सदाचारी बन गया. राजकुमार का स्वभाव जब परिवर्तित हो गया तब उस साधु ने बताया कि वह साधु और कोई नहीं उसका पिता राजा महिष्मति है.
महिष्मति ने अब लुम्भक को अपना उत्तराधिकारी बनाया और वह कई वर्षो तक धर्मानुसार शासन करता हुआ एक दिन अपने पुत्र को राज्य संप कर सन्यास ग्रहण कर श्री हरि की भक्ति में लीन हो गया और मृत्यु पश्चात मोक्ष को प्राप्त हुआ।


            आहार :-

                          इस दिन नारियल,नीबू,सुपारी आदि अर्पण करके नारायण की पूजा करनी चाहिए और तिल व् गुड़ का सागर लेना चाहिए ।

Saturday, October 28, 2017

kartik poornima/ कार्तिक पूर्णिमा/ 4 नवंबर 2917

कार्तिक पूर्णिमा का हिन्दू धर्म में बहुत महत्त्व है.पुराणों में मान्यता है कि आज के दिन शिव जी ने त्रिपुरासुर नामक राक्षस का वध किया था अतः अगर इस दिन कृतिका नक्षत्र हो तो इस पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा कहते हैं और इस दिन इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है।
वर्ष २०१७ में ४  नवम्बर को यह पूर्णिमा पड़ेगी -
शरद पूर्णिमा से शुरू होकर कार्तिक पूर्णिमा को समाप्त होने वाले इस माह में गंगा स्नान का भी बहुत महत्त्व है, श्रद्धालु पूरे माह प्रातः उठकर स्नान से निवृत होकर तारों के दर्शन करते हैं, कुछ लोग पूरे माह गंगा स्नानं को जाते हैं।
मत्स्यपुराण के अनुसार इस दिन भगवान् विष्णु ने  प्रलय काल में वेदों की रक्षा करने के लिए मत्स्य अवतार लिया था .इस  दिन दान -स्नान तथा दीप दान का विशेष महत्त्व है।
इस दिन चंद्रोदय पर शिवा ,सम्भूति।,संतति ,प्रीती ,अनुसूया ,और क्षमा इन छः कृतिकाओं का पूजन और वृष दान से शिवपद की प्राप्ति होती है।
शास्त्रों में वर्णित है कि कार्तिक पुर्णिमा  के दिन पवित्र नदी व सरोवर एवं धर्म स्थान में जैसे, गंगा, यमुना, पुष्कर, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरूक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है. महर्षि अंगिरा ने स्नान के प्रसंग में लिखा है कि यदि स्नान में कुशा और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है.

कथा ---

एक बार त्रिपुर राक्षस ने एक लाख वर्ष तक प्रयागराज में घोर तप किया ,इस तप से  समस्त जड़ ,चेतन ,जीव तथा देवता भयभीत हो गए। देवताओं ने तप भंग करने के लिए अप्सराएं भेजीं पर उन्हें भी सफलता नहीं मिली। ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया था कि वह देवता से मरे और न ही मनुष्य से।
और इस वरदान के कारण त्रिपरसुर ने निडर हो अत्याचार करना शुरू कर दिया तब महादेव तथा त्रिपुरासुर का घमासान युद्ध हुआ, अंत में शिव जी ने विष्णु जी  की सहायता से उसका अंत कर दिया !तभी से इस दिन का महत्त्व बढ़ गया और इस दिन को दीपावली से ही सामान मनाया जाता है।
 कार्तिक पूर्णिमा का दिन सिख सम्प्रदाय के लोगों के लिए भी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दिन सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था. सिख सम्प्रदाय को मानने वाले  पूरे कार्तिक माह में सुबह स्नान कर गुरूद्वारों में जाकर गुरूवाणी सुनते हैं और नानक जी के बताये रास्ते पर चलने की सगंध लेते हैं.तथा प्रभात फेरियां करते हैं। इस दिन कढ़ाव प्रसाद बना कर वितरित करते हैं। कढ़ाव प्रसाद में सूजी का हलवा बनाया जाता है।
कार्तिक माह में रामायण का अध्धययन करने से बहुत पुण्य प्राप्त होता है। कुछ लोग पूरे कार्तिक में कार्तिक महात्म्य कि पुस्तक का पाठ करते हैं।
पूरे कार्तिक मास में तुलसी पूजन का विशेष महत्त्व  है, तुलसी पर दीप जलना, तुलसी विवाह आदि की परम्परा बहुत पुरानी है, एकादशी से पूर्णिमा तक किसी भी दिन तुलसी विवाह किया जाता है, परन्तु अधिकतर घरों व् मंदिरों में प्रबोधिनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह का आयोजन बड़ी धूमधाम से किया जाता है।


कुछ लोग कार्तिक पूर्णिमा के अगले दिन प्रातः ४ बजे उठकर दरिद्र भगाते हैं।

Tuesday, October 24, 2017

prabhodhini ekadashi/ प्रबोधनी एकादशी/ देवोत्थानी एकादशी/ दिनांक ३१ अक्टूबर २०१७






कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवोत्थान एकाद्शी,ग्यारस तुलसी या देव उठावनी एकादशी के नाम से जाना जाता है. कुछ स्थानों में इसे प्रबोधनी एकाद्शी भी कहा जाता है. इसे पापमुक्त एकादशी भी माना जाता है। 
 कहा ये जाता है कि भाद्रपक्ष की एकादशी को भगवान् विष्णु ने शंखासुर नामक राक्षस का वध किया और क्षीर सागर में थकावट के कारण शयन करने चले गए और प्रबोधनी एकादशी को चार माह के पश्चात  विश्राम समाप्त किया, तभी से चौमास प्राम्भ होता है. देवउठावनी एकादशी के दिन भगवन विष्णु शयन से उठते हैं अतः इस लिए इसे देवोत्थान एकादशी भी कहते हैं।
इस तिथि के बाद ही शादी-विवाह आदि के शुभ कार्य शुरु होते है. वर्ष २०१७   में यह एकादशी दिनांक ३१ अक्टूबर को पड़ेगी।

प्रबोधनी एकादशी के विषय में कहा गया है,कि समस्त तीर्थों में जाने था, गौ, स्वर्ण, भूमि आदि के दान का फल और कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रबोधनी एकादशी के रात्रि के जागरण के फल एक बराबर होते है. राजसूय यज्ञ के बराबर इस एकादशी का फल माना गया है।  इस संसार में उसी का जीवन सफल है, जिसने प्रबोधनी एकादशी का व्रत किया है. संसार में जितने तीर्थ स्थान है, वे सभी एकत्र होकर इस एकादशी को करने वाले व्यक्ति के घर में होते है. देवोत्थानी एकादशी करने से व्यक्ति धनवान, योगी, तपस्वी तथा इन्द्रियों को जीतने वाला बनता है. इस व्रत को करने से व्यक्ति भगवान श्री विष्णु का प्रिय बन जाता है.

इस दिन तुलसी विवाह भी किया जाता है,कहा जाता है कि कार्तिक मास मे जो मनुष्य तुलसी का विवाह भगवान से करते हैं, उनके पिछलों जन्मो के सब पाप नष्ट हो जाते हैं।
 कार्तिक मास में स्नान करने वाले स्त्रियाँ कार्तिक शुक्ल एकादशी का शालिग्राम और तुलसी का विवाह रचाती है।

 वैसे तो तुलसी विवाह कि कई कथाएं हैं मगर हम जो कथा विशेष रूप से तुलसी विवाह पर कहते हैं वो इस प्रकार है ------

एक माँ की २ पुत्रियां थीं उनमें  से एक उसकी सौतेली बेटी थी, जिस कारण से वह उससे द्वेश रखती थी। मगर पुत्री उसे अपनी सगी माँ की ही तरह मानती थी और वह पूरे कार्तिक मास में तुलसी जी की पूजा करती व् विवाह विधि पूर्वक करती थी जिससे उसकी माँ उससे नाराज रहती थी। 

जब वह विवाह के लायक हुई तो माँ ने उसका विवाह तय कर दिया मगर उसके विवाह पर उसे दहेज़ की जगह तुलसी पत्र और मंजरी ही दे दिया। 

पुत्री के विदा के समय नाउ भी साथ में भेजा ताकि वह आकर उसके ससुराल का समाचार सुनाये। रस्ते में जब सभी बारातियों को भूख लगी तब उन्होंने पात्र खोलकर देखा तो उसमें तरह-तरह के फल ,मेवा और मिष्ठान थे जिन्हें उन सभी ने बड़े चाव से खाया। 

घर से जब उसका नाउ वापस चलने लगा तो उस पुत्री ने उसे २ तुलसी पत्र  दिए ,जब वह घर आया तो वे तुलसी पत्र  सोने की गिन्नी के रूप में बदल गए। 

यह देखकर उस स्त्री ने अपनी सगी बेटी को भी तुलसी की पूजा के लिया कहा और उसे भी कहा कि वो तुलसी पत्र और मंजरी को घड़े में संभालकर रखे, तथा शीघ्र ही उसका भी विवाह कर दिया ,विदा के समय उसके साथ भी उसी तरह मंजरी और तुलसी पत्र रख दिए जैसे अपनी सौतेली बेटी के साथ रखे थे। 

जब रस्ते में बारातियों ने पात्र खोले तो उनमें मिट्टी और तुलसी पत्र के अतिरिक्त कुछ नहीं था जिसके कारण  वे सभी नाराज हुए और बुरा भला कहने लगे। 

इधर जब माँ को पता चला तो वो अपनी सौतेली बेटी पर बहुत नाराज हुई और कहा तूने जादू  -टोना किया है। 

तब पुत्री ने कहाँ माँ मैं तो मन से तुलसी पूजा करती थी और इसके कारण मुझे तुलसा महारानी का आशीर्वाद मिला है। 

तब माँ को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने भी तभी  से तुलसी पूजन आरम्भ कर दिया। 

 तुलसी विवाह के सुअवसर पर व्रत रखने का बड़ा ही महत्व है. आस्थावान भक्तों के अनुसार इस दिन श्रद्धा-भक्ति और विधिपूर्वक व्रत करने से व्रती के इस जन्म के साथ-साथ पूर्वजन्म के भी सारे पाप मिट जाते हैं और उसे पुण्य की प्राप्ति होती है.
इस दिन इस तरह की रंगोली या चौक पूरते (बनाते) हैं और सिंघाड़े, शकरकंद  आदि  से पूजन करते हैं 
इस दिन सूर्योदय से पहले उठकर स्नान आदि से निवृत होकर व्रत का संकल्प लेकर सूर्यदेव को जल अर्पित करना चाहिए। 
इस दिन निराहार व्रत रहकर बारस को ब्राह्मणों को दान करने के पश्चात् भोजन का विधान बताया गया है लेकिन यदि ऐसा संभव न हो तो फलाहार के साथ इस व्रत को किया जा सकता है मगर अन्न का निषेध बताया गया है। 
शमी के पुष्प, बेल पत्र चढाने का महत्त्व भी बताया गया है।

Thursday, September 14, 2017

इंदिरा एकादशी

                   अश्विन माह के कृष्ण पक्ष को पड़ने वाली एकादशी का नाम इंदिरा एकादशी है,  यूँ तो सभी एकादशी का अपना अलग महत्व है परन्तु श्राद्ध पक्ष में पड़ने वाली इस एकादशी का महत्व बहुत है, ऐसा माना जाता है कि इस एकादशी का फल पितरों के लिए होता है इसके करने से पितरों को मोक्ष प्राप्त होता है।
 वर्ष २०१७ में यह एकादशी दिनांक १६ सितम्बर दिन शनिवार को पड़ रही है।

                  वैसे तो एकादशी की पूजा काफी विधि पूर्वक की जाती है परन्तु गृहस्थ अपनी सुविधानुसार एकादशी को कर सकते हैं विशेष रूप से यदि मान कर एकादशी का व्रत किया जा रहा है तो पूर्ण रूप से विधि अनुसार ही एकादशी का व्रत किया जाना चाहिए।


कथा :- 



श्री द्वारकानाथ जी युधिष्ठिर से बोले :- हे धर्मपुत्र अश्विन माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम इंदिरा एकादशी है और इसके महात्म्य की एक कथा मैं कहता हूँ  :-

                 
                एक समय नारद मुनि ब्रह्म लोक से यम लोक में आये, वहां एक धर्मात्मा राजा को दुखी देखा, मुनि के दिल में दया भाव जागे। उसका भविष्य कर्म विचार कर महिष्मति नगरी में आये वहां इस राजा का पुत्र राज्य करता था, नारद ऋषि इससे कहने लगे तेरे पिता को मैं यमराज की सभा में बैठा देख आया हूँ और उसके शुभ कर्म को भी जो की उसे स्वर्ग को देने वाले हैं।

            मात्र एक एकादशी व्रत के बिगड़ जाने के कारन ही उनको यम लोक मिला है यदि तुम विधि पूर्वक इंद्रा एकादशी का व्रत पिता के निमित्त कर लो तो अवश्य ही उनको स्वर्ग लोक मिल जायेगा।
        
          इतना कहकर महर्षि ने उस पुत्र को इस एकादशी की शुभ विशि कुछ इस तरह से बतलायी  :-



विधि :-


             १. दशमी के दिन पितृ की श्राद्ध करके ब्राह्मणों को प्रसन्न करें।
             २. गौ का ग्रास, कौवे का ग्रास बनाएं और उनका पेट भरें।
             ३. मिथ्या भाषण न करें, रात्रि को भूमि पर शयन करें।
             ४. प्रातः श्रद्धा सहित भक्ति से एकादशी का व्रत करें।
             ५. ब्राह्मणों को यथाशक्ति दक्षिणा दे कर फलाहार का भोग लगाएं।
             ६. गौ माता को भी मधुर फलों का भोग लगाएं।
             ७. रात्रि जागरण कर विष्णु भगवन का पूजन करें।


       ऐसी शिक्षा दे कर नारद मुनि अंतर्ध्यान हो गए, राजा ने विधिपूर्वक एकादशी का व्रत व् पूजन किया।
       उसी समय इसके ऊपर पुष्पों को वर्ष हुई और ऊपर दृष्टि करने पर  पाया कि पुष्पक विमान में सवार उसके पिता स्वर्ग की ओर जा रहे थे।



फलाहार :- इस दिन शालिग्राम की पूजा कर टिल और गुड़ का सागर लेना चाहिए।


Tuesday, September 12, 2017

श्रीभगवतीस्तोत्रम्







दिनांक २१ सितबंर २०१७ से नवरात्री का शुभागमन हो रहा है माता रानी हमारे घर पधारे और हम सब पर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखें यही हम सब की कामना होती है।
 हम सब तरह -तरह से माँ की प्रार्थना अर्चना करते हैं  इसी श्रेणी में मैं यहाँ श्री भगवती स्त्रोत का वर्णन कर रही हूँ, इस स्त्रोत का उच्च स्वर से पाठ करना बहुत ही फलदायी होता है, इस स्त्रोत को सबसे पहले मैंने टीवी पर प्रसारित होने वाली माँ वैष्णव की आरती के दौरान सुना था और वहीँ इसे कंठस्थ भी किया।


  • जय भगवती देवी नमो वरदे, जय पापविनाशिनी बहु फलदे ॥ 
  • जय शुम्भ निशुम्भ कपाल धरे, जय  प्रणमामी तु विनिशर्तिहरे ॥ 
  • जय चन्द्र्दिवाकर नेत्र धरे, जय पावक भूशिन्वक्त्र धरे ॥ 
  • जय भेरवदेह निलीनपरे, जय अन्धक्दैत्य  विशोषकरे   ॥ 
  • जय महिष विमर्दिनी शूलकरे, जय लोक समस्त्क पाप हरे ॥ 
  • जय देवी पितामह विष्णुनते, जय भाष्कर शक्र शिरोअवनते ॥ 
  • जय षन्मुख सायुध ईश्नते, जय सागर गामिनी शम्भुनते ॥ 
  • जय दुःख दरिद्र विनाश्कारे, जय पुत्र कलत्र विबुद्धिकरे ॥ 
  • जय देवी समस्त शरीर धरे, जय नाक विदर्शिनी दुःख हरे ॥ 
  • जय वांछित दायिनी सिद्धि वरे, जय व्याद्विनाशिनी मोक्ष करे ॥ 
श्री भगवती की स्तुति का नित्य प्रति पाठ करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है और माँ की कृपा बनी रहती है .