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Thursday, June 19, 2014

वीरवार की कथा

दोस्तों ,वीरवार का व्रत हिन्दू परिवारों में ५०^% लोग रखते हैं और कथा की पुस्तकों में से इसकी कथा को या तो अकेले ही या फिर परिवार के लोगों के साथ बैठकर पढ़ते और पूजा करते हैं ,पहले मैं भी वीरवार का व्रत किया करती थी और हमारे परिवार के लगभग सभी लोग साथ बैठकर इसकी कथा सुनते थे ,धीरे-धीरे वक़्त बदला समय के अभाव  में अब कभी अकेले और कभी साथ में इसकी कथा का हम सभी आनंद उठाते हैं ।
दोस्तों मैं यहाँ किसी धार्मिक पुस्तक की कथा नहीं वरन जो कथा वर्षों से हमारे घर में कही जा रही उसका वर्णन करने जा रही हूँ. इस कथा को हमारे घर के एक बुजुर्ग ने प्रारम्भ किया था और आज भी इसी कथा को हम सुनते और सुनाते हैं ,तो चलिए आप सभी के सन्मुख मैं इस कथा को प्रस्तुत कर रही हूँ ---------

पूजन सामिग्री-------

चने की दाल ,गुड़ ,मुनक्का ,केला ,विष्णु भगवान की प्रतिमा या फोटो और केले का पेड़ (केले का पेड़ न हो तो केले के पत्ते को विश्नी भगवान की फोटो के पास लगा लें )
कोशिश करें की इस दिन पीले वस्त्र पहने। 

निषिद्ध ------

यदि कर सकें तो कोशिश करें की इस दिन परिवार के पुरुष शेव न बनाएं ,घर की विशेष सफाई जैसे जाला साफ़ करना आदि न करें ,धोभी को वस्त्र न दें साथ घर में भी वस्त्र न धोएं । 

कथा-------

बहुत पुरानी बात है एक राज्य का राजा अपने परिवार के साथ सुख समृद्धि के साथ जीवन  यापन कर रहा था ,। एक समय की बात थी की वह जंगल में शिकार खेलने गया ,वापस लौटते समय उसे एक बुढ़िया मिली और वह बोली राजन "मैंने बृहस्पति का व्रत रखा और मेरी कथा सुनने वाला कोई नहीं मिल रहा है क्या आप मेरी कथा सुन लेंगे मैं भूख और प्यास से दुखी हूँ "
राजन बोले , " हाँ मैं आपकी कथा सुन लूँगा ,आप कथा कहिये "
तब उस बुढ़िया ने कथा कही और प्रसाद के रूप में चने की दाल और गुड दिया।
प्रसाद को देखते ही राजा आग-बबूला हो गया और प्रसाद को फैंकते हुए बोला," यह प्रसाद देकर तुम मेरा अपमान कर रही हो इसे तो हमारे अस्तबल के घोड़े भी नहीं कहते हैं " ऐसा कहकर वह राजा वहां से चला गया ।
परन्तु प्रसाद की अवज्ञा के कारण उस राजा का राज-पाट धीरे-धीरे समाप्त होने लगा ,राजा अपना सब कुछ शतरंज मे हारता चला गया और परिवार के सदस्य धीरे-धीरे दूर चले गए ।
केवल राजा की छोटी बहु साथ में रह गयी ,राजा की छोटी बहु धार्मिक प्रवर्ति की थी और प्रतिदिन पूजा पाठ से निवृत होकर ही दूसरा काम करती थी।
एक दिन वह काफी उदास सी घर के बाहर बैठी थी तभी उधर से एक वृद्ध महिला गुजरी और उससे उसके उदास होने का कारण पूछा परन्तु राजा की बहु ने कुछ भी न बताया ,काफी पूछने पर उसने सारा वृतांत कह सुनाया । तब उस वृद्ध महिला ने कहा तुम विष्णु भगवान की पूजा और वीरवार का व्रत करो शायद तुम्हारे दुःख दूर हों ।
तब राजा की बहु ने वीरवार का व्रत विधविधान से करना शुरू कर दिया ,पहले जो राजा का व्यसन था शतरंज खेलना उसे ही उसने अब अपना रोजगार बना लिया , जब से बहु ने व्रत शुरू किया राजा को शतरं में जीत मिलने लगी ।
अब तो कोई भी वीरवार ऐसा नहीं जाता जब राजन अपनी बहु को कथा सुनाये बिना खेलने के लिए जाये ।
परन्तु एक दिन  भूल कर खेलने चला गया ,बहु बहुत देर तक भूखी प्यासी बैठी रही ,विष्णु भगवान से देखा नहीं गया और वे राजा का वेश बनाकर आये कथा कही और चले गए।
तभी राजा को याद आया और वो दौड़ते-भागते आये और बोले बहु आज बहुत देर हो गयी है चलो कथा कहता हूँ।
बहु ने कहा -"पिताजी अभी तो आप आये थे और कथा कही फिर ये कैसी बातें आप कर रहे हैं "
राजा बहुत परेशान हुआ और अगले वीरवार को न ही खुद बाहर गया और न ही बहु को कहीं जाने दिया ,जब काफी देर तक बहु भूखी-प्यासी पूजन के प्रतीक्षा में बैठी रही तब फिर से विष्णु भगवान आये और कथा आरम्भ कर दी।
जब राजा के कानों में कथा की आवाज आई तब भीतर जाकर देखा तो आश्चर्य चकित से रह गए ,वहां तो साक्षात विष्णु भगवान बैठे थे , राजा को अपनी गलती का अहसास हुआ और वो उनके पैरों में गिरकर रोने लगे ,और अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी ।
विष्णु भगवान तो दयालु थे ही उन्होंने राजन को क्षमा कर दिया ,और जाने लगे ,राजन ने उनके क़दमों में गिरकर कहने लगे,भगवन," अब मेरा यहाँ क्या का आप मुझे भी अपने साथ ले चलिए "
भगवान ने कहा कोई भी इस तरह से सशरीर  नहीं जाता ,राजन के बहुत कहने पर भगवान उसे साथ ले जाने लगे तब बहु ने कहा ,"मैं भी आपके बिना क्या करूंगी आप मुझे भी साथ ले चलिए "
भगवान की असीम कृपा से दोनों के लिए विमान आया जिसमें बैठकर दोनों स्वर्ग को गए । 


भगवान विष्णु की पूजा करने से घर में सुख-समृद्धि और शांति का निवास होता है ,इस दिन केला नहीं खाना चाहिए । 

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